69th BPSC Mains Questions with Model Answers | best answer writing format

69th BPSC Mains Questions with Model Answers | Detailed & Structured Solutions for UPSC/BPSC Aspirants

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69th BPSC Mains Questions with Model Answers

69th BPSC Mains Questions with Model Answers | best answer writing format

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Question 1 . Indian Councils Act, 1892
भारतीय परिषद् अधिनियम, 1892

Answer : भारतीय परिषद् अधिनियम, 1892

प्रस्तावना:

भारतीय परिषद अधिनियम, 1892 ब्रिटिश शासन द्वारा पारित एक महत्त्वपूर्ण संवैधानिक अधिनियम था। यह अधिनियम भारत में विधायिका के कार्यों में भारतीयों की भागीदारी को सीमित रूप में स्वीकार करने की दिशा में एक प्रारंभिक प्रयास था।

प्रमुख विशेषताएँ:

  1. विधायी परिषदों का विस्तार:
    इस अधिनियम के तहत केंद्रीय तथा प्रांतीय विधायी परिषदों के सदस्यों की संख्या में वृद्धि की गई। इससे परिषदों की संरचना अधिक व्यापक हुई।
  2. गैर-सरकारी सदस्यों की नियुक्ति:
    पहली बार कुछ गैर-सरकारी भारतीय सदस्यों को नामांकित किया गया। हालांकि उन्हें निर्वाचित नहीं कहा गया बल्कि ‘नामित’ किया गया।
  3. प्रारंभिक चुनाव प्रक्रिया का परिचय:
    निर्वाचनों की सीधी व्यवस्था नहीं की गई, परंतु विभिन्न निकायों जैसे नगरपालिकाओं और विश्वविद्यालयों को सदस्यों के नाम प्रस्तावित करने का अधिकार मिला।
  4. सदस्यों को प्रश्न पूछने का अधिकार:
    परिषद के सदस्यों को कार्यपालिका से प्रश्न पूछने का सीमित अधिकार दिया गया, लेकिन इस पर कई प्रतिबंध भी लगाए गए (जैसे – 6 दिन पूर्व सूचना देना, अनुपूरक प्रश्न की अनुमति नहीं आदि)।
  5. वार्षिक बजट पर चर्चा:
    सदस्यों को बजट पर चर्चा का अधिकार दिया गया, परंतु इसमें संशोधन या मतदान का अधिकार नहीं था।

महत्व:

  • यह अधिनियम भारतीयों की राजनीतिक भागीदारी की दिशा में पहला औपचारिक कदम था।
  • भारतीयों को विधायी प्रक्रिया से जुड़ने का सीमित अवसर मिला।
  • इसने बंगाल के सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, मद्रास के गोपाल कृष्ण गोखले जैसे नेताओं को विधायी परिषदों में प्रवेश का अवसर दिया।

आलोचना:

  • भारतीयों को सिर्फ ‘नामांकन’ के जरिए लाया गया, लोकतांत्रिक चुनाव की व्यवस्था नहीं थी
  • अधिकार अत्यंत सीमित थे, केवल सुझाव और प्रश्न पूछने तक सीमित
  • इससे भारत के राष्ट्रीय नेताओं की राजनीतिक आकांक्षाएं पूरी नहीं हो सकीं

निष्कर्ष:

भारतीय परिषद अधिनियम, 1892 यद्यपि सीमित सुधारों तक सीमित था, फिर भी यह भारत में संवैधानिक सुधारों की श्रृंखला का आरंभिक चरण था। इसने भारतीयों की राजनीतिक चेतना और प्रतिनिधित्व की माँग को और बल दिया, जो आगे चलकर अधिनियम 1909 और 1919 की राह का आधार बना।

Question 2: Santhal Uprising
संथाल विद्रो

Answer : 🔶 प्रस्तावना:

संथाल विद्रोह 1855 ई. में ब्रिटिश शासन, महाजनों और ज़मींदारों के शोषण के विरुद्ध झारखंड क्षेत्र (अब संथाल परगना) में हुआ एक प्रमुख जनजातीय आंदोलन था। यह भारत के इतिहास में पहला संगठित जनजातीय विद्रोह माना जाता है, जिसने अंग्रेजों की नीतियों को खुली चुनौती दी।

🔶 विद्रोह के कारण:

  1. ब्रिटिश भू-राजस्व नीति:
    • ब्रिटिश सरकार की ज़मींदारी व्यवस्था ने पारंपरिक आदिवासी स्वशासन व्यवस्था को नष्ट कर दिया।
    • नए ज़मींदार और महाजन जबरन कर वसूलते थे।
  2. शोषणकारी महाजन व्यवस्था:
    • संथालों को कर्ज में फंसाकर उनकी ज़मीनें छीनी जा रही थीं।
    • सूदखोर महाजन मनमाने ब्याज वसूलते थे।
  3. प्रवासी व्यापारियों का शोषण:
    • डिकू (बाहरी लोग) संथालों से जबरदस्ती काम कराते और कम पारिश्रमिक देते थे।
  4. संस्कृति और परंपराओं पर आघात:
    • संथाल समाज की सांस्कृतिक स्वायत्तता पर खतरा उत्पन्न हो गया था।

🔶 नेतृत्व:

  • सिद्धू, कान्हू, चांद और भैरव — ये चारों संथाल भाई इस विद्रोह के मुख्य नेता थे।
  • उन्होंने लगभग 60,000 संथालों को संगठित कर ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध युद्ध की घोषणा की।

🔶 विद्रोह की घटनाएं:

  • विद्रोह की शुरुआत 30 जून 1855 को हुई।
  • संथालों ने ज़मींदारों, महाजनों और ब्रिटिश अधिकारियों पर हमला किया।
  • विद्रोह धीरे-धीरे बीरभूम, भागलपुर और राजमहल तक फैल गया।

🔶 ब्रिटिश दमन और परिणाम:

  • अंग्रेजों ने इस विद्रोह को बेरहमी से कुचल दिया।
  • सिद्धू और कान्हू को मार डाला गया
  • लेकिन परिणामस्वरूप सरकार को क्षेत्रीय प्रशासन में बदलाव करना पड़ा।

🔶 महत्व:

  1. संथाल परगना की स्थापना:
    • विद्रोह के बाद 1855 में एक नया प्रशासनिक क्षेत्र “संथाल परगना” बनाया गया।
  2. जनजातीय चेतना का उदय:
    • यह विद्रोह भारतीय जनजातीय समाज में राजनीतिक चेतना का प्रतीक बना।
  3. स्वतंत्रता संग्राम की नींव:
    • इसे भारत के स्वतंत्रता आंदोलन की जनजातीय भूमिका के रूप में देखा जाता है।

🔶 निष्कर्ष:

संथाल विद्रोह ब्रिटिश शासन के शोषण के विरुद्ध जनजातीय आत्मसम्मान, साहस और संगठन का प्रतीक था। यह न केवल एक क्षेत्रीय विद्रोह था, बल्कि भारतीय जनजातीय समाज की राजनीतिक और सामाजिक चेतना के प्रारंभ का संकेत था। सिद्धू-कान्हू जैसे वीरों का बलिदान आने वाले आंदोलनों की प्रेरणा बना।

Question 3: Champaran Satyagraha
चम्पारण सत्याग्रह

Answer : 🔶 प्रस्तावना:

चम्पारण सत्याग्रह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक ऐतिहासिक turning point था। यह महात्मा गांधी द्वारा भारत में किया गया पहला सत्याग्रह था, जो 1917 में बिहार के चम्पारण जिले में नील की खेती करने वाले किसानों के शोषण के विरुद्ध किया गया था।

🔶 ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:

  • चम्पारण के किसान अंग्रेजों की तीन-कठिया प्रथा के अंतर्गत अपनी ज़मीन के 3/20 भाग में जबरन नील (इंडिगो) की खेती करने को बाध्य थे।
  • यूरोपीय नीलहों द्वारा किसानों से अत्यधिक लगान वसूला जाता था और अत्याचार किए जाते थे।
  • रैयतों की समस्याएं अत्यधिक बढ़ चुकी थीं, लेकिन प्रशासन ने सुनवाई से इनकार कर दिया।

🔶 प्रमुख कारण:

  1. तीन-कठिया प्रथा (3/20 ज़मीन में नील की जबरन खेती)
  2. नीलहों का अत्याचार और जुर्माना
  3. कानूनी संरक्षण का अभाव
  4. गंभीर सामाजिक और आर्थिक शोषण
  5. स्थानीय कार्यकर्ताओं का आमंत्रण — जैसे राजकुमार शुक्ल, जिन्होंने गांधी जी को चम्पारण आने को कहा।

🔶 सत्याग्रह की प्रक्रिया:

  • गांधी जी ने अप्रैल 1917 में चम्पारण पहुँचकर पीड़ित किसानों से प्रत्यक्ष बातचीत की।
  • प्रशासन ने उन्हें चम्पारण छोड़ने का आदेश दिया, जिसे गांधी जी ने अस्वीकार कर दिया।
    👉 इस पर उन्हें अदालत में तलब किया गया, लेकिन जनता के भारी समर्थन के चलते सरकार को पीछे हटना पड़ा।
  • गांधी जी ने एक फैक्ट-फाइंडिंग टीम बनाई जिसमें राजेंद्र प्रसाद, मजहरुल हक, ब्रजकिशोर प्रसाद आदि शामिल थे।

🔶 परिणाम:

  1. तीन-कठिया प्रथा समाप्त हुई।
  2. किसानों को अत्याचार से राहत मिली और आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ।
  3. यह भारत में सत्याग्रह की प्रभावशीलता का पहला प्रमाण बना।
  4. महात्मा गांधी को जननेता और रणनीतिकार के रूप में पहचान मिली।
  5. सरकार को गांधीजी की बात माननी पड़ी – यह ब्रिटिश प्रशासन की आत्मसमर्पण की पहली घटना थी।

🔶 महत्व:

  • भारत में गांधी युग की शुरुआत
  • अहिंसा और सत्याग्रह की रणनीति को वैचारिक और व्यावहारिक स्वीकृति।
  • यह आंदोलन भारत में जन आंदोलनों की नींव बना।
  • चम्पारण ने देश को दिखाया कि जनता की एकता और अहिंसा के बल पर अन्याय का अंत संभव है

🔶 निष्कर्ष:

चम्पारण सत्याग्रह न केवल किसानों की विजय थी, बल्कि भारत की राजनीतिक चेतना और संघर्ष की दिशा को भी परिभाषित करता है। यह आंदोलन महात्मा गांधी के नेतृत्व में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की शुरुआत का प्रतीक था, जिसने ‘सत्य’ और ‘अहिंसा’ को सबसे बड़ा हथियार बना दिया।

Question 4: Art and Architecture of Mauryan Period
मौर्य काल की कला और वास्तुकला

Answer : 🔶 प्रस्तावना:

मौर्य काल (322 ई.पू. – 185 ई.पू.) भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास का एक सुनहरा युग था, जब कला और वास्तुकला ने शाही संरक्षण में महान उन्नति की। विशेषतः सम्राट अशोक के काल में धार्मिक, स्थापत्य और मूर्तिकला से संबंधित अद्भुत निर्माण कार्य हुए, जो आज भी भारत की सांस्कृतिक धरोहर माने जाते हैं।

🔶 मौर्यकालीन कला की प्रमुख विशेषताएँ:

  1. दरबारी (शाही) कला:
    • राजा के संरक्षण में विकसित भव्य स्थापत्य और मूर्तिकला।
    • उद्देश्य: शाही वैभव और बौद्ध धर्म का प्रचार।
  2. लोककला:
    • आम जनता द्वारा निर्मित चित्र, मिट्टी की मूर्तियाँ, खिलौने आदि।
    • ग्रामीण जीवन और धार्मिक विश्वासों की झलक।

🔶 प्रमुख वास्तुकला और कला के उदाहरण:

1. स्तंभ (Pillars):
  • अशोक स्तंभ सबसे प्रसिद्ध उदाहरण हैं।
  • चूनार पत्थर से निर्मित, अत्यंत चमकदार पॉलिश।
  • सारनाथ स्तंभ का शेरमुख – भारत का राष्ट्रीय प्रतीक।
  • बेलनाकार Shaft और सुंदर पुष्पाकार आधार।
2. गुफाएँ (Rock-cut Architecture):
  • बराबर और नागार्जुनी की गुफाएँ – अजातशत्रु पहाड़ियों में स्थित।
  • गुफाएँ बौद्ध और आजीवक संप्रदायों को समर्पित थीं।
  • अंदर की दीवारें अत्यंत चिकनी और चमकदार।
3. स्तूप (Stupa):
  • अशोक द्वारा बौद्ध धर्म के प्रचार हेतु 84,000 स्तूपों का निर्माण (ऐतिहासिक विवरण)।
  • प्रारंभिक स्तूपों में सांची स्तूप प्रमुख, जिसे बाद में शुंगों ने विस्तार दिया।
4. मूर्ति कला (Sculpture):
  • दिदारगंज यक्षी – अत्यंत पॉलिश युक्त सुंदर मूर्ति (पटना संग्रहालय में)।
  • यक्ष, यक्षिणियाँ, हाथी, सिंह आदि की मूर्तियाँ।
5. महल और नगर निर्माण:
  • मेगस्थनीज के अनुसार पाटलिपुत्र में भव्य लकड़ी के महल और नगर निर्माण हुआ था।
  • जलनिकासी, सड़कें, और नगर नियोजन अत्याधुनिक था।

🔶 मौर्य कला की विशेषताएँ:

  • राजकीय संरक्षण में कला का विकास।
  • धार्मिक भावनाओं से प्रेरित स्थापत्य।
  • पॉलिश युक्त पत्थर का प्रयोग (Mauryan Polish)।
  • कला में प्राकृतिकता और जीवन्तता

🔶 निष्कर्ष:

मौर्य काल की कला और वास्तुकला भारतीय सांस्कृतिक विरासत का एक गौरवशाली अध्याय है। इस काल की शिल्प कृतियाँ आज भी भारत की पहचान हैं। अशोक स्तंभ, सांची स्तूप और बराबर की गुफाएँ मौर्य शिल्पकला की श्रेष्ठता के प्रतीक हैं। इस युग ने न केवल भारत में बल्कि पूरे एशिया में बौद्ध स्थापत्य की नींव रखी, जो आगे चलकर गुप्त काल और दक्षिण-पूर्व एशिया की कला को भी प्रभावित करती रही।

Question 5: Cave Paintings of Eastern India in Ancient Period
प्राचीन काल में पूर्वी भारत के गुफा चित्र

Answer ; 🔶 प्रस्तावना:

भारत में गुफा चित्रकला की परंपरा अत्यंत प्राचीन रही है। पूर्वी भारत — विशेषकर बिहार, झारखंड, ओडिशा और पश्चिम बंगाल — में अनेक गुफाओं एवं शैलाश्रयों में चित्र मिलते हैं, जो आदिमानव की जीवनशैली, धार्मिक विश्वास एवं सांस्कृतिक चेतना का प्रमाण हैं। ये चित्रकला के इतिहास में प्राचीनतम मानव अभिव्यक्ति का उदाहरण माने जाते हैं।

🔶 प्रमुख क्षेत्र जहाँ गुफा चित्र पाए गए हैं:

क्षेत्रराज्यकाल/विशेषता
खरवारगढ़ (Kharwargarh)झारखंडशिकार, नृत्य, मानव आकृति
सुपारस (Suphars)झारखंडरंगीन चित्र, ज्यामितीय आकृति
गुफ्को (Gufkho)बिहारजानवरों की आकृतियाँ
भोजपुर, कैमूर पहाड़ियाँबिहारशैलचित्रों में मानव व पशु आकृतियाँ
लाडिया (Ladia)ओडिशाधार्मिक प्रतीक, रेखात्मक कला

🔶 चित्रों की प्रमुख विशेषताएँ:

  1. विषयवस्तु:
    • शिकार, पशु-पक्षी, मानव समूह, नृत्य, कृषि, धार्मिक अनुष्ठान।
    • जीवन के दैनिक क्रियाकलापों का चित्रण।
  2. रंग और तकनीक:
    • प्राकृतिक रंगों जैसे — लाल गेरू, चारकोल, सफेद मिट्टी का प्रयोग।
    • उंगलियों, लकड़ी की छड़ी, जानवर के बालों से चित्र बनाए जाते थे।
  3. शैली और संरचना:
    • चित्र रेखात्मक होते थे, कभी-कभी ज्यामितीय पैटर्न में।
    • स्थायित्व के लिए रंगों में जड़ी-बूटियों का प्रयोग।
  4. धार्मिक संकेत:
    • कुछ चित्रों में सूर्य, त्रिशूल, पेड़, हाथ जोड़ते व्यक्ति आदि धार्मिक प्रतीक दिखाई देते हैं।

🔶 महत्व:

  • ये चित्र पूर्वी भारत की आदिम संस्कृति और धर्म का दस्तावेज़ हैं।
  • ये बताते हैं कि पूर्वी भारत में कला चेतना, प्रकृति प्रेम और प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति अत्यंत प्राचीन है।
  • इन चित्रों से सभ्यता के क्रमिक विकास को समझने में मदद मिलती है।

🔶 निष्कर्ष:

प्राचीन काल के पूर्वी भारत के गुफा चित्र न केवल भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के साक्ष्य हैं, बल्कि यह सिद्ध करते हैं कि कला केवल मनोरंजन या सौंदर्यबोध नहीं, बल्कि आध्यात्मिकता, सामाजिकता और ऐतिहासिक चेतना की वाहक भी है। इन चित्रों का संरक्षण आवश्यक है क्योंकि ये मानव इतिहास की शुरुआती आवाज़ें हैं, जो शिलाओं पर उकेरी गईं।

Question 6: “Bihar has been the centre of learning and spiritualism for ancient time.”
Explain in detail.
“प्राचीन काल से बिहार शिक्षा और अध्यात्म का केन्द्र रहा है।” इसकी विस्तृत व्याख्या
कीजिए।

Answer : 🔶 प्रस्तावना:

बिहार की भूमि प्राचीन काल से ही ज्ञान, संस्कृति, धर्म और दर्शन की धरोहर रही है। यहां ऐसे विश्वविद्यालय, संत, विचारक और धर्म प्रणेता हुए, जिन्होंने भारत ही नहीं, सम्पूर्ण विश्व को शिक्षा और अध्यात्म की दिशा में मार्गदर्शन प्रदान किया। वैदिक काल से लेकर मौर्य, गुप्त एवं पाल युग तक, बिहार भारत के बौद्धिक और आध्यात्मिक केंद्र के रूप में प्रतिष्ठित रहा।

🔶 1. शिक्षा का प्राचीन केन्द्र:

नालंदा विश्वविद्यालय (5वीं शताब्दी ई.)
  • गुप्त वंश के शासकों द्वारा स्थापित।
  • विश्व का पहला आवासीय विश्वविद्यालय
  • यहाँ 10,000 विद्यार्थी और 2,000 शिक्षक थे।
  • subjects: तर्कशास्त्र, आयुर्वेद, गणित, ज्योतिष, बौद्ध दर्शन।
  • चीन के यात्री ह्वेनसांग और इत्सिंग ने इसकी प्रशंसा की।
विक्रमशिला विश्वविद्यालय (8वीं–9वीं शताब्दी)
  • पाल वंश के धर्मपाल द्वारा स्थापित।
  • विशेष रूप से तंत्र विद्या और बौद्ध अध्ययन के लिए प्रसिद्ध।
  • यहाँ से तिब्बत और दक्षिण-पूर्व एशिया में बौद्ध शिक्षक भेजे गए।
ओदंतपुरी विश्वविद्यालय
  • पाल वंशकाल में विकसित।
  • बौद्ध शिक्षा और ग्रंथों के संरक्षण का प्रमुख केंद्र।

🔶 2. अध्यात्म और धर्म का केन्द्र:

बौद्ध धर्म का उदय:
  • महात्मा बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति (बोधगया), उपदेश (सारनाथ) और महापरिनिर्वाण (कुशीनगर) की घटनाओं के केंद्र में बिहार प्रमुख है।
  • बोधगया में वटवृक्ष के नीचे बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ।
  • बिहार बौद्ध धर्म का जन्मस्थल बना।
जैन धर्म का प्रचार:
  • महावीर स्वामी, जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर का जन्म वैशाली (बिहार) में हुआ।
  • उनका संपूर्ण जीवन क्षेत्र बिहार से जुड़ा रहा।
  • जैन धर्म की पहली परिषद भी पावापुरी में आयोजित हुई।
हिंदू धर्म और दर्शन:
  • मिथिला में वैदिक अध्ययन, मीमांसा दर्शन, तर्कशास्त्र का गढ़ रहा।
  • विद्यापति, याज्ञवल्क्य, मंडन मिश्र जैसे महान विद्वानों की भूमि।
  • यहां की संस्कारिता और वेद-उपनिषद परंपरा आज भी जीवंत है।

🔶 3. अंतरराष्ट्रीय प्रभाव:

  • नालंदा और विक्रमशिला जैसे संस्थानों में चीन, जापान, कोरिया, तिब्बत, श्रीलंका से विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने आते थे।
  • बिहार की शिक्षा और धर्म ने एशियाई सांस्कृतिक एकता को जन्म दिया।

🔶 निष्कर्ष:

बिहार की भूमि केवल राजनैतिक क्रांतियों की नहीं, बल्कि बौद्धिक क्रांति और आत्मिक जागरण की भूमि रही है। प्राचीन बिहार न केवल भारत में, बल्कि सम्पूर्ण विश्व में शिक्षा और अध्यात्म की ज्योति जलाने वाला क्षेत्र था। नालंदा, विक्रमशिला, बोधगया, वैशाली – ये सब आज भी इसकी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का प्रमाण हैं। इस परंपरा को पुनर्जीवित करना बिहार के विकास का आधार हो सकता है।

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Question 7 : Evaluate the Champaran Indigo Movement and explain its impacts on the
Indian Freedom Struggle.
चम्पारण नील आन्दोलन का मूल्यांकन कीजिए तथा भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष पर इसके प्रभावों
कावर्णन कीजिए।

Answer : 🔶 प्रस्तावना:

चम्पारण नील आंदोलन (1917) भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का प्रथम जन-आंदोलन था जिसे महात्मा गांधी के नेतृत्व में सत्याग्रह के माध्यम से संचालित किया गया। यह बिहार के चम्पारण ज़िले में हुआ जहाँ अंग्रेज ज़मींदार किसानों से जबरन नील की खेती करवाते थे। इस आंदोलन ने न केवल स्थानीय किसानों को राहत दिलाई बल्कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में गांधी युग की शुरुआत भी की।

🔷 चम्पारण नील आन्दोलन का मूल्यांकन:

✅ 1. आंदोलन का पृष्ठभूमि:

  • तीन-कठिया प्रणाली: किसानों को ज़बरन 3/20 भाग ज़मीन में नील की खेती करनी होती थी।
  • अत्यधिक शोषण, जुर्माने और अत्याचार से किसान त्रस्त थे।
  • स्थानीय नेता राजकुमार शुक्ल ने गांधीजी को आमंत्रित किया।

✅ 2. गांधीजी की भूमिका:

  • गांधी जी ने किसानों की पीड़ा सुनकर चम्पारण आने का निर्णय लिया।
  • सरकार ने उन्हें रोकने की कोशिश की लेकिन गांधी जी ने सत्याग्रह का रास्ता अपनाया।
  • उन्होंने जन-जागरूकता, साक्ष्य संकलन और कानूनी दवाब के माध्यम से आंदोलन को संगठित किया।

✅ 3. मुख्य विशेषताएँ:

  • यह गांधीजी का भारत में पहला आंदोलन था।
  • यह पूर्णत: अहिंसात्मक आंदोलन था।
  • इसमें किसानों की सीधी भागीदारी रही।
  • अंग्रेज सरकार को झुकना पड़ा और तीन-कठिया प्रथा समाप्त हुई।

🔷 भारतीय स्वतंत्रता संग्राम पर प्रभाव:

✅ 1. गांधी युग की शुरुआत:

  • यह आंदोलन भारतीय राजनीति में महात्मा गांधी के प्रवेश और प्रभाव का प्रतीक बना।

✅ 2. सत्याग्रह की शक्ति प्रमाणित हुई:

  • इस आंदोलन ने भारतीयों को अहिंसा और सत्य के बल पर अन्याय के विरुद्ध खड़े होने का साहस दिया।

✅ 3. कांग्रेस की नई दिशा:

  • अब कांग्रेस केवल शहरी शिक्षित वर्ग की पार्टी नहीं रही, बल्कि जनता आधारित आंदोलन की दिशा में बढ़ी।

✅ 4. ग्रामीण भारत की भागीदारी:

  • आंदोलन ने किसानों और ग्रामीणों को राष्ट्रीय आंदोलन से जोड़ा।

✅ 5. ब्रिटिश सरकार की कमजोरी उजागर:

  • ब्रिटिश प्रशासन ने पहली बार जनदबाव में झुककर नीति परिवर्तन किया।

🔷 निष्कर्ष:

चम्पारण नील आंदोलन न केवल किसानों की आर्थिक व सामाजिक मुक्ति का प्रतीक बना, बल्कि इसने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को एक नई दिशा, रणनीति और नेतृत्व प्रदान किया। यह आंदोलन यह सिद्ध करता है कि जब जनता संगठित हो और नेतृत्व नैतिक हो, तो बिना हिंसा के भी अन्याय का अंत संभव है

Question 9 : Critically examine the contribution of moderate phase of the Indian National Congress Movement.
भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस आंदोलन के उदारवादी चरण के योगदान का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।

Answer : 🔶 प्रस्तावना:

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का उदारवादी चरण (1885–1905) भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का प्रारंभिक चरण था, जब नेतृत्व ब्रिटिश शासन में संवैधानिक सुधार, प्रार्थनापत्र, और विनम्र संवाद के माध्यम से भारतीय हितों की रक्षा करना चाहता था। इस दौर के नेताओं को “उदारवादी” कहा जाता है। इनमें दादाभाई नैरोजी, गोपाल कृष्ण गोखले, फिरोजशाह मेहता, सुरेंद्रनाथ बनर्जी आदि प्रमुख थे।

🔷 उदारवादियों का प्रमुख योगदान:

✅ 1. राजनीतिक चेतना का प्रसार:

  • पहली बार देश के आमजन को राष्ट्रीयता, स्वतंत्रता और स्वशासन जैसे विचारों से परिचित कराया गया।
  • अखबारों, भाषणों और सम्मेलनों के माध्यम से लोगों में राजनीतिक जागरूकता फैलाई गई।

✅ 2. संवैधानिक मांगों की शुरुआत:

  • उन्होंने सिविल सेवाओं में भारतीयों की भागीदारी, विधायिकाओं में सुधार, बुनियादी स्वतंत्रता, और भ्रष्टाचार की समाप्ति जैसी मांगें उठाईं।

✅ 3. आर्थिक राष्ट्रवाद:

  • दादाभाई नैरोजी ने “अर्थ-निकासी सिद्धांत (Drain of Wealth Theory)” प्रस्तुत किया।
  • यह बताया कि कैसे ब्रिटिश शासन भारतीय अर्थव्यवस्था का शोषण कर रहा है।

✅ 4. संवैधानिक उपायों पर विश्वास:

  • उन्होंने शांतिपूर्ण, अहिंसक और विधिसम्मत तरीकों से आंदोलन चलाया।
  • ब्रिटिश संसद को प्रभावित करने का प्रयास किया गया।

✅ 5. राष्ट्रीय मंच का निर्माण:

  • कांग्रेस की स्थापना और अखिल भारतीय स्तर पर संगठन का निर्माण आंदोलन की नींव बना।

🔷 आलोचनात्मक मूल्यांकन (Criticism):

1. अत्यधिक विश्वास British शासन पर:

  • उन्होंने ब्रिटिश शासन की “न्यायप्रियता” पर भरोसा बनाए रखा, जो व्यावहारिक नहीं था।

2. जनभागीदारी की कमी:

  • आंदोलन मुख्यतः शहरी, शिक्षित मध्यम वर्ग तक सीमित रहा, किसानों और मजदूरों को इससे जोड़ा नहीं गया।

3. क्रांतिकारी सोच का अभाव:

  • उनके आंदोलन में क्रांतिकारिता और प्रभावशाली दबाव की कमी थी।
  • मांगें बार-बार ठुकराए जाने पर भी प्रतिक्रिया तीव्र नहीं रही।

4. विनम्र नीति (Petitions & Prayers):

  • उनका आंदोलन मांगपत्र, निवेदन और ज्ञापन तक सीमित रहा, जिससे ब्रिटिश सरकार ने उन्हें हल्के में लिया।

🔷 निष्कर्ष:

हालांकि उदारवादी चरण का दृष्टिकोण सीमित था, लेकिन भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की नींव मजबूत करने में उनकी भूमिका अविस्मरणीय है। इन्होंने जनता में राजनीतिक चेतना, राष्ट्रवाद, और संवैधानिक अधिकारों की समझ विकसित की। आगे चलकर गरम दल और गांधी युग ने इन्हीं मूल्यों को क्रांतिकारी रूप देकर स्वतंत्रता संग्राम को जन-जन का आंदोलन बनाया।

Question 10: Trace the development of modern education in Bihar and its impact.
बिहार में आधुनिक शिक्षा के विकास और उसके प्रभाव को रेखांकित कीजिए।

Answer : 🔶 प्रस्तावना:

बिहार, जो प्राचीन काल में नालंदा और विक्रमशिला जैसे विश्वविद्यालयों का गढ़ रहा, औपनिवेशिक काल में आधुनिक शिक्षा के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा। ब्रिटिश शासन के दौरान परंपरागत गुरुकुल प्रणाली के स्थान पर पश्चिमी शिक्षा पद्धति की शुरुआत हुई, जिसने बिहार की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक संरचना को प्रभावित किया।

🔷 बिहार में आधुनिक शिक्षा का विकास:

✅ 1. ब्रिटिश शासन की भूमिका:

  • 1813 का चार्टर एक्ट: अंग्रेजों द्वारा शिक्षा के लिए पहली बार धन आवंटित किया गया।
  • वुडल का डिस्पैच (1854): आधुनिक शिक्षा के संस्थान स्थापित करने का आधार बना।

✅ 2. प्रारंभिक शिक्षा संस्थान:

  • पटना कॉलेज (1839): बिहार का पहला उच्च शिक्षा संस्थान।
  • पटना साइंस कॉलेज (1927) और बिहार नेशनल कॉलेज की स्थापना ने उच्च शिक्षा को बढ़ावा दिया।
  • 1908 में पटना विश्वविद्यालय की स्थापना हुई, जो पूरे पूर्वी भारत के लिए शिक्षा का केंद्र बना।

✅ 3. स्वदेशी आंदोलन के दौरान शिक्षा:

  • 1905 के बाद स्वदेशी आंदोलन ने राष्ट्रीय शिक्षा संस्थानों की मांग बढ़ाई।
  • बिहार विद्यापीठ (1921) की स्थापना महात्मा गांधी के प्रेरणा से की गई।

✅ 4. महत्वपूर्ण शिक्षाविद:

  • राजेंद्र प्रसाद, आचार्य कृपलानी, सैयद हसन इमाम जैसे व्यक्तियों ने शिक्षा के माध्यम से समाज सुधार किया।

🔷 आधुनिक शिक्षा के प्रभाव:

✅ 1. राजनीतिक चेतना का विकास:

  • शिक्षित युवाओं ने राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लिया।
  • नेतृत्व क्षमता बढ़ी – जैसे डॉ. राजेंद्र प्रसाद, अनुग्रह नारायण सिंह।

✅ 2. सामाजिक सुधार:

  • जातिगत भेदभाव, बाल विवाह, पर्दा प्रथा आदि के खिलाफ आवाज़ उठी।
  • नारी शिक्षा को प्रोत्साहन मिला।

✅ 3. सांस्कृतिक जागरूकता:

  • साहित्य, कला, और पत्रकारिता का विकास हुआ।
  • हिंदी, मैथिली, उर्दू साहित्य को नए आयाम मिले।

✅ 4. आर्थिक प्रगति:

  • शिक्षित वर्ग के उभरने से नौकरियों के नए अवसर मिले।
  • प्रशासन, न्यायिक सेवा, और अकाउंटेंसी जैसे क्षेत्रों में भागीदारी बढ़ी।

✅ 5. बौद्धिक नेतृत्व का उदय:

  • बिहार से विचारशील, तर्कशील एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखने वाले नेता सामने आए।

🔷 निष्कर्ष:

बिहार में आधुनिक शिक्षा ने न केवल एक शैक्षिक क्रांति लाई, बल्कि इसे राजनीतिक स्वतंत्रता, सामाजिक न्याय और सांस्कृतिक पुनर्जागरण से जोड़ दिया। हालांकि आज भी शिक्षा के क्षेत्र में चुनौतियाँ हैं, लेकिन आधुनिक शिक्षा ने बिहार को बौद्धिक नेतृत्व प्रदान कर भारत के राष्ट्र निर्माण में अद्वितीय योगदान दिया है।

Question 11 .Explain the concern of the Supreme Court of India on combating gender stereotypes.
लैंगिक रूढ़िबद्ध धारणाओं से मुकाबला करने के लिए भारतीय सर्वोच्च न्यायालय की चिन्ता का उल्लेख कीजिए।

Answer : 🔶 प्रस्तावना:
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार), अनुच्छेद 15 (भेदभाव का निषेध) और अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) सभी नागरिकों के लिए लैंगिक समानता की गारंटी देते हैं। इसके बावजूद भारतीय समाज में लैंगिक रूढ़िबद्धताएँ (gender stereotypes) गहराई से जमी हुई हैं। ऐसे में भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने अनेक मामलों में इन रूढ़ियों के खिलाफ आवाज़ उठाई और न्यायिक हस्तक्षेप किया।

🔷 सर्वोच्च न्यायालय की प्रमुख चिंताएँ:

✅ 1. न्याय में निष्पक्षता और लैंगिक संवेदनशीलता:

  • कोर्ट ने माना है कि न्यायिक प्रणाली को लैंगिक दृष्टि से संवेदनशील होना चाहिए।
  • निर्णयों में महिला विरोधी सोच या पूर्वग्रह नहीं झलकना चाहिए।

✅ 2. न्यायाधीशों के लिए दिशा-निर्देश:

  • 2022 में सुप्रीम कोर्ट ने जमानत आदेशों में महिलाओं के लिए लैंगिक अपमानजनक टिप्पणियों से बचने हेतु विशेष निर्देश जारी किए।
  • कहा गया कि “महिलाओं से शादी कर लेने”, “चरित्र” या “शारीरिक बनावट” पर टिप्पणी करना अनुचित है।

✅ 3. प्रशासनिक और कानूनी भाषा में सुधार की आवश्यकता:

  • कोर्ट ने यह चिंता जताई कि कई बार पुलिस रिपोर्ट, एफआईआर और चार्जशीट में महिला विरोधी या रूढ़िबद्ध भाषा का उपयोग होता है।
  • न्यायपालिका से अपेक्षा की जाती है कि वह भाषा में लिंग-निरपेक्षता को बढ़ावा दे।

🔷 प्रमुख न्यायिक उदाहरण:

⚖️ अपराजिता सिंह बनाम भारत सरकार (2022):

  • कोर्ट ने कहा कि “किसी महिला की यौनिकता को उसके चरित्र से जोड़ना लैंगिक रूढ़ि है।”
  • न्यायाधीशों को नारी सम्मान के साथ सोचने और भाषा का प्रयोग करने की चेतावनी दी गई।

⚖️ सुभाष चंद्रा बनाम दिल्ली पुलिस (2021):

  • सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि “किसी महिला की मदद के बदले उससे विवाह की शर्त रखना या उससे बलात्कार को हल्के में लेना” लैंगिक अन्याय है।

🔷 सुप्रीम कोर्ट के सुझाव:

  • न्यायाधीशों और पुलिस कर्मियों के लिए लैंगिक संवेदनशीलता पर प्रशिक्षण
  • कानूनी भाषा में सुधार जिससे लैंगिक रूढ़ियों को रोका जा सके।
  • जमानत आदेशों में महिला की पहचान या चरित्र पर अनावश्यक टिप्पणी से बचाव।

🔷 निष्कर्ष:

भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णयों के माध्यम से यह स्पष्ट किया है कि लैंगिक रूढ़ियों का न्यायिक स्थान पर कोई स्थान नहीं होना चाहिए। यह केवल एक संवैधानिक आवश्यकता ही नहीं, बल्कि नैतिक एवं सामाजिक उत्तरदायित्व भी है। जब तक न्याय प्रणाली से लैंगिक पूर्वग्रह समाप्त नहीं होगा, तब तक सच्ची न्यायपूर्ण व्यवस्था की स्थापना नहीं हो सकती

69th BPSC Mains Questions with Model Answers

69th BPSC Mains Questions with Model Answers

Question 12: Examine the relevance of the Bharatiya Nagarik Suraksha Sanhita, 2023 in
Indian governance system.
भारतीय शासन व्यवस्था में भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की प्रासंगिकता का विवेचन कीजिए।

Answer : 1. औपनिवेशिक विधि का स्थानांतरण
Criminal Procedure Code (CrPC) को समाप्त कर इसे BNSS से प्रतिस्थापित किया गया, जो 21 दिसंबर 2023 को लोकसभा एवं राज्यसभा से पारित होकर 1 जुलाई 2024 से लागू हुआ । यह एक ऐतिहासिक परिवर्तन है, जिसे प्रधानमंत्री मोदी ने “औपनिवेशिक‑युग का अंत कर एक नागरिक‑कल्याणकर्मी विधि की शुरुआत” बताया ।

2. प्रक्रिया में त्वरकता और समयबद्धता

BNSS स्पष्ट समयसीमाएँ निर्धारित करता है जैसे:

  • संकेत (charge) 60 दिनों में framed होना चाहिए,
  • मेडिकल रिपोर्ट 7 दिनों में,
  • पीड़ित को 90 दिनों में प्रगति रिपोर्ट ।
    ऐसे प्रावधान न्यायालयिक प्रक्रिया को जल्दी और पारदर्शी बनाते हैं।

3. डिजिटलाइजेशन की प्रतिबद्धता

BNSS ई‑FIR, e‑summons, दूरी‑परक सुनवाई, डिजिटल पंचनामें, ऑडियो‑वीडियो रिकॉर्डिंग प्रक्रिया में शामिल करता है गृह मंत्री अमित शाह ने दिल्ली में e‑summons और e‑evidence के उपयोग पर जोर दिया

4. आरोपी और दोषी दोनों के अधिकारों में सुधार

BNSS गिरफ्तारी के समय सूचना देने, मेडिकल जांच, वकील से परामर्श जैसी संस्थाओं की व्यवस्था करता है । महिलाओं, बच्चों, मानसिक रूप से अस्वस्थ व्यक्तियों को संवेदनशील‑मनोवृत्ति के साथ संवैधानिक सुरक्षा दी गई है ।

5. अभियोजन व जांच में जवाबदेही

  • DSP स्तर के अधिकारियों को धारा 107 के तहत संपत्ति जब्ती की नई शक्ति मिली है, जिससे ED की आकस्मिकता कम हुई
  • SP स्तर पर जाँच‑निगरानी (mob lynching, organized crime, terrorism जैसी मामलों में) अनिवार्य है ।
  • अभियोजन निदेशालय की स्थापना ज़िम्मेदारी और कार्य‑प्रणाली को शासित बनाती है ।

6. पीड़ितों और गवाहों की सुरक्षा

  • FIR सहित अन्य अहम दस्तावेज नि:शुल्क उपलब्ध कराने व 14 दिनों में रिपोर्ट देने का प्रावधान है
  • राज्य सरकारों को गवाह-सुरक्षा योजनाएं लागू करनी हैं ।

7. साक्ष्य-विधि में पारदर्शिता

Search/seizure, forensic, statement recording आदि सभी पहलुओं पर ऑडियो–वीडियो रजिस्ट्रेशन अनिवार्य किया गया

8. चुनौतियाँ और सुधार की गुंजाइश

  • ग्रामीण क्षेत्रों में तकनीकी वाधाओं की संभावनाएं ।
  • गोपनीयता और निजता पर डेटा साक्ष्यों के उपयोग से जुड़े चिंताएं ।
  • वित्तीय आयाम और राज्य‑केंद्र समन्वय, स्टेकहोल्डर प्रशिक्षण व निगरानी तंत्र की आवश्यकता ।

निष्कर्ष

BNSS, 2023 भारतीय शासन व्यवस्था के लिए औपनिवेशिक कानून प्रणाली से आधुनिक, तकनीकी एवं नागरिक-केंद्रित प्रणाली की ओर एक महत्वपूर्ण कदम है। यह न्याय के समयबद्ध वितरण, अभियोजन में जवाबदेही, डिजिटल युग में अदालत का एकीकरण और नागरिक-गोपनीयता व अधिकारों की रक्षा सुनिश्चित करता है। तथापि, इसकी सफलता के लिए अवसंरचनात्मक तैयारियों, निगरानी तंत्र और डेटा-सुरक्षा प्रावधानों की सुदृढ़ता आवश्यक है।

विभिन्न हितधारकों (पुलिस, न्यायालय, नागरिक संगठन) की सक्रिय भागीदारी और सतत़ संशोधन या प्रशिक्षण इसकी प्रभावशीलता को और विशेष बनाएंगे।